नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

June 23, 2011

संयुक्त परिवार में बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति ...

दृश्य एक ...
भरा पूरा संयुक्त परिवार है ...बहू तीन छोटे बच्चों को घर छोड़ कर सुबह कार चलाना सीखने और दोपहर में फैशन डिजायनिंग का कोर्स सीखने जाती है ...कार चलाना सीखना तो फिर भी महीने भर का कार्यक्रम ही है , मगर फैशन डिजायनिंग कोर्स पूरा एक साल चलने वाला है ...बहू टैलेंटेड है , सिलाई , चित्रकला में प्रवीण ...वह कुछ और नया सीखे और आत्मनिर्भर होने की ओर कदम बढ़ाये , अच्छा ही है ...अब चूँकि घर में सिर्फ दो ही महिलाएं हैं , पुरुष सदस्यों को घरेलू काम काज में दिलचस्पी नहीं है या फिर उनकी कंडिशनिंग इस तरह की गयी हैं कि वे इन कार्यों को करना अपनी हेठी समझते हैं ...ऐसे में घर में एकमात्र बची बुजुर्ग विधवा माँ के पास घर को सँभालने के सिवा कोई चारा नहीं है ....उनकी परेशानी की बात की गयी तो बहू अपने बच्चों के लिए खाना अलग पकाने लगी ...मगर बाकी बचे सदस्यों, अतिथियों की जिम्मेदारी , बुजुर्ग महिला पर ही है ...

दृश्य दो ...
यहाँ भी संयुक्त परिवार है मगर सिर्फ एक बेटा -बहू, अपने दो छोटे बच्चों के साथ रहते हैं ... इस पुत्र का विवाह बहुत बड़ी उम्र में हुआ ...उसके विवाह नहीं होने तक तीनों का सुखी परिवार चल रहा था , मगर अब जब वह भी विवाहित और दो बच्चों का पिता है , गृहक्लेश से स्थिति तनावपूर्ण बनी रहती है ...कारण कि पुत्रवधू सरकारी शिक्षक की नौकरी प्राप्त करने के प्रयास में पढने -लिखने में भी समय देती है , बात यहाँ भी वही कि उनके बाल गोपाल ,रसोई और अतिथियों का सत्कार उक्त वृद्ध महिला की जिम्मेदारी ही है , यहाँ थोड़ी कंडीशन अलग है कि पुरुष सदस्यों को घर के काम काज से परहेज नहीं है...

दोनों दृश्यों में जो कॉमन है वह है, नारी की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता , आर्थिक मोर्चे पर भी पति के कदम से कदम मिला कर चलना..जाहिर है कि इस स्थिति में घर की जिम्मेदारी प्रत्येक सदस्य को समान रूप से उठानी पड़ेगी ...मगर चूँकि ये बुजुर्ग महिलाएं आजीवन अपना कर्तव्य ही निभाती रही हैं , अधिकारों को लेकर उन्होंने कभी सोचा ही नहीं , इन परिस्थितियों में वे न सिर्फ खुद को उपेक्षित महसूस करती हैं, अपितु उनकी उम्र के मद्देनजर गृहस्थी का भार भी उनपर अधिक होता है ...कमोबेश मध्यमवर्गीय परिवारों में बुजुर्ग महिलाओं की दशा आर्थिक और सामाजिक स्तर दोनों ही दिशा से दयनीय है ...

आधी आबादी की क्षमता , प्रतिभा और कार्यशक्ति देश और समाज के उत्थान में प्रयोग करना ही होगा , इसमें कोई दो राय नहीं ...ये उच्च शिक्षित अथवा आत्मनिर्भर होने की मंशा रखती महिलाएं यदि दबाव में सिर्फ घर तक सीमित रही तो उनके कुंठित होकर मानसिक बिमारियों का शिकार होने की सम्भावना भी बनती है ...मध्यम आय वर्ग के लिए बुजुर्ग व्यक्तियों की देखभाल के लिए अलग से सेवक की नियुक्ति करना आर्थिक भार ही साबित होगा ...

पिछले दिनों ऐसे कई परिवारों में बुजुर्गों की दुर्दशा देखने के बाद ओल्ड एज होम की सार्थकता पर मेरे विचारों में बदलाव आया है ...पहले मुझे यह शब्द गाली- सा लगता था , मगर अब मैं सोचती हूँ कि यदि घर में रहकर बेगानों सा रहना पड़े तो , ओल्ड एज होम एक अच्छा माध्यम है जहाँ अपने हमउम्र लोगो के साथ सुख दुःख बाँट कर मन हल्का कर सकते हैं , अपनी मर्जी और सुविधा से रह सकते हैं ...

ओल्ड एज होम से बेहतर विकल्प मुझे डे -केअर सेंटर लगता है , जहाँ बुजुर्ग और बच्चे दोनों अपना क्वालिटी समय साथ बिता सकते हों , बच्चे बुजुर्गों की आँखों के सामने भी हो और उन पर अतिरिक्त जिम्मेदारी भी ना हो ...पुरुष , महिलाएं और बच्चे भी इन सेंटर्स में अपना फ्री समय देकर इन सेंटर्स के माहौल को खुशनुमा और आरामदायक बना सकते हैं ... सरकार और सामाजिक संस्थाओं को इस दिशा में प्रयास करने चाहिए ...अधिक से अधिक सुविधायुक्त डे केयर सेंटर की स्थापना इस सामाजिक समस्या के हल की ओर एक बेहतर कदम है ...

नई पीढ़ी की अपनी जिम्मेदारियों से भागने की बात अथवा पुराने समय को बेहतर बता कर उसका गुणगान करते रह कर हम इस समस्या से भाग नहीं सकते ... हमें इस पर विचार करना होगा कि ऐसे में घर के बच्चों और बुजुर्ग सदस्यों की देखभाल किस तरह की जाए कि वे स्वयं को उपेक्षित ना समझे , यही इस पोस्ट का उद्देश्य है ...इस पर बहस और कार्य किया जाना अपेक्षित है...

आपकी राय और प्रतिक्रिया का इंतज़ार है !!

21 comments:

  1. सबसे पहले नारी पर आपके आगमन और सहभागिता पर नारी को बधाई -अपरंच ,आपने एक बहुत उचित और सामयिक मुद्दा उठाया है ..आज सयुंक्त परिवारों की अच्छाईयों को लोग गिना तो रहे हैं मगर बदलते परिवेश के साथ कई मामलों में असामंजस्य की स्थितियां भी हैं -इसलिए लोग नाभिकीय परिवारों की ओर-मियाँ बीबी बाल बच्चे तक ही मानव जीवन को सीमित कर दे रहे हैं ....ओल्ड एज केयर होम का आपका सुझाव उचित लगता है और शायद जब तक हम संक्राति काल में हैं यह विकल्प उचित लगता है ....नहीं तो ऐसी शर्मसार करने वाली स्थिति जिसका जिक्र अनवरत पर दिनेश द्विवेदी जी ने की है कि पति पत्नी माँ कमरे में बंद कर देशाटन को चले गए और भी वजूद में आयेगी ..
    एक संतुलित और विचारोत्तेजक पोस्ट के लिए धन्यवाद !

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  2. बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति का सही आकलन करती हुई, बढ़िया पोस्ट!

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  3. क्लेश और कुंठा सबके लिये घातक होती है। एक स्वस्थ पारिवारिक वातावरण के अनेक रूप हो सकते हैं लेकिन "स्व" से बाहर आना उसकी नींव है। बहू को तो सास की सीमायें समझनी ही हैं, पुरुष सदस्यों को भी माँ के बढते काम मे हिस्सा लेना चाहिये। क्या हो यदि सास भी रोज़ शाम को भजन-सत्संग और सुबह को योग या ताई-ची आदि के कार्यक्रम के लिये निकल जाया करे? वैसे भी बच्चों की ज़िम्मेदारी दादी से पहले तो माँ-बाप की ही हुई न। अधिकांश भारतीय परम्परायें त्याग, स्वार्थहीनता, समर्पण और परिपक्व मानसिकता के सहारे टिकी थीं। अगर इनकी कमी होगी तो नये विकल्प पुरानों से बेहतर हैं।

    डे केयर के सुझाव में बुराई नहीं है मगर उसके लिये भी शुचिता, व्यवहार आदि का प्रशिक्षण ज़रूरी है। सच पूछिये तो हमारे समाज में विवाह-पूर्व प्रशिक्षण की भी बडी आवश्यकता है क्योंकि अपरिपक्व माँ-बाप के बच्चे भी अक्सर अपरिपक्व ही होते हैं और न सिर्फ अपनी ज़िन्दगी नर्क बनाते हैं बल्कि जिस कनक को छू लेते हैं उसे भी कनक कर देते हैं।

    पुराने समय के गुणगान को तो पुराने समय में भी निकम्मापन ही माना जाता था। संस्कृत की कहावत है कि निकम्मे लोग ही मीठे जल का नया कुआँ खोदने के बजाय पूर्वजों की प्रशंसा करते हुए उनके बनाये उस कुएं का जल पीते रहते हैं जो अब खारा हो चुका है। परस्पर त्याग के चलते भारतीय विवाह में जन्म-जन्मांतर का बन्धन माना गया था, परंतु आज हिन्दू विवाह में तलाक़ न केवल स्वीकृत है बल्कि न्याय-संगत भी है। इसी प्रकार ईसाई और मुसलमान अपने धर्म की परम्पराओं के विरुद्ध जाकर संतान गोद ले रहे हैं।

    सौ बात की एक बात कि किसी भी सिस्टम को एकदम से नकारने के बजाय प्रत्येक हल का यथास्थिति प्रयोग होना चाहिये।
    सत्यमेव जयते = (बिना बलप्रयोग के) सत्य ही टिकेगा, असत्य को बलपूर्वक कुछ देर तक थोपा भले ही जाये, वह अपने बल पर टिकाऊ नहीं हो सकता ...

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  4. हम इस समस्या से भाग नहीं सकते ... हमें इस पर विचार करना होगा कि ऐसे में घर के बच्चों और बुजुर्ग सदस्यों की देखभाल किस तरह की जाए कि वे स्वयं को उपेक्षित ना समझे , यही इस पोस्ट का उद्देश्य है ...इस पर बहस और कार्य किया जाना अपेक्षित है...

    bilkul sahi kaha aap ne kisi samasya ka hal vichar vimarsh ke dwara hi nikalta hai ,aaj old age home ko nakara nahin ja sakta lekin nai peedhi ko bhi ye samajhne ki zaroorat hai ki buzurg bojh nahin hain unhin ki mehnat aur duaen hamen kisee muqam tak pahunchati hain to old age home men jane ki naubat hi kyon aae ?
    bahut samyik aur saarthak post ke liye badhai

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  5. बहुत ही विचारणीय पोस्ट है आपकी ! इसमें संदेह नहीं कि अपना विकास करने का, अपने कैरियर को चुनने का तथा अपने ध्येय को प्राप्त करने का अधिकार हर नारी को है फिर वे चाहे बहू की भूमिका में हो या बेटी की ! लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति अपने बलबूते पर और अपनी सीमाओं और क्षमताओं को पहचान कर ही की जानी चाहिये ! उसके लिये घर के वृद्ध सदस्यों का दोहन व शोषण करना किसी भी तरह उचित नहीं है ! दूसरों के कंधे पर रख कर बंदूक नहीं चलाई जा सकती ! और विशेष रूप से यह उस स्थिति में तो और भी अक्षम्य है जब वे कंधे किसी बुज़ुर्ग के दुर्बल और क्षीण कंधे हों ! भारतीय समाज के परिवारों की परम्पराओं की दुहाई देना यदि असंगत लगे तो मानवीयता के आधार पर भी यह सर्वथा अनुचित है ! जिन बुजुर्गों को हमारी सेवा, प्यार, सहानुभूति और साथ की सबसे ज्यादह ज़रूरत है उन्हीं पर अपने सारे कर्तव्यों का बोझ लाद कर अपनी लालसाओं की पूर्ति की जाये मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ !
    ओल्ड एज होम में बुजुर्गों को भेज देना उन्हें निर्वासन का दण्ड देने के समान है ! यह एक विकट समस्या है जिसका निदान उन्हींको ढूँढना होगा जिन्होंने इसे अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु पैदा किया है ! डे केयर सेंटर अच्छा विकल्प हो सकते हैं लेकिन धन व्यय तो वहाँ भी होगा ही और हर रोज दिन भर के लिये घर को असुरक्षित छोड़ना भी विपत्ति को न्यौता देने के समान ही है !

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  6. यदि घर में रहकर बेगानों सा रहना पड़े तो , ओल्ड एज होम एक अच्छा माध्यम है जहाँ अपने हमउम्र लोगो के साथ सुख दुःख बाँट कर मन हल्का कर सकते हैं , अपनी मर्जी और सुविधा से रह सकते हैं ...
    sahi nishkarsh, iske baawjood kuch lagta hai

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  7. इस स्थिति का एक पक्ष और हैं
    हर बुजुर्ग असहाय होता हैं उम्र के इस मुकाम पर लेकिन समस्या इस मुकाम पर नहीं शुरू होती हैं समस्या शुरू होती है

    हमारे यहाँ माँ पिता बच्चो को जनम देने के कारण उनको अपनी जागीर की तरह मानते हैं . इस कारण से वो अपने "अधिकार " कभी छोडते ही नहीं जब तक बढ़ती उम्र की असह्यता उनसे ये नहीं करवाती हैं .

    अगर एक स्त्री का विवाह १८ वर्ष की आयु में हो जाए और १९ वर्ष में वो माँ बनजाये तो जब वो ४४ साल की होगी तो वो सास बनने की तयारी में होगी यानी उसका बेटा २५ साल का होगा और एक २३ साल के आस पास की लड़की उसके घर आ रही होगी .

    ४४ साल की सास ना तो बूढी हैं ना जवान और उसकी नज़र में २३ साल की बहू को कुछ नहीं आता . सो आज भी बहुत से परिवारों में ये सास अपने अधिकार में सब कुछ रखती हैं जबकि बहू को क्युकी अब उसकी शादी हो गयी हैं इस लिये अपना घर चाहिये अपना अधिकार चाहिये जहा वो "निर्णय " ले सके .
    ४४ साल से सास ५४ की होती हैं तो बहू ३३ की पर अभी भी बहू - बेटा "छोटे " ही रहते क्यकी अभी सास सक्षम हैं और इस वजह से बहू और बेटा या तो अलग हो जाते हैं या उसी घर में कलह का कारन बनता है
    ६४ साल की सास की बहू ४४ साल की होती हैं लेकिन फिर भी "ना समझ " रहती हैं जबकि वही सास जब ४४ साल की थी तो इतनी सक्षम थी की अपने घर में २३ साल की लड़की को बहू बना कर ले आये थी
    ७४ साल की सास की बहू ५४ साल की होती हैं और तब तक सास अशक्त होती हैं तब उसको लगता हैं अब कोई अधिकार उसके पास नहीं रह गया वही ५४ साल की बहू को लगता हैं की वो कितना करे और कब तक

    क्रम जारी रहता
    ना जाने कितने घरो में बहू को इस लायक भी नहीं समझा जाता की वो अपने घर में मैड रख कर काम करवा सके . उसके लिये भी सास से पूछना पड़ता हैं .
    धीरे धीर बहू -बेटा घर से जुडने की जगह अलग होने का सोचने लगते हैं

    जिस समय बच्चे १८ वर्ष के हो जाए उस समय के बाद उनके निर्णय का सम्मान होना चाहिये
    शादी के बाद उनकी घर गिरहस्ती उनके निर्णय से चलनी चाहिये अगर बहू वोर्किंग हैं तो ये उस का और उसके पति का निर्णय हो की उनके बच्चे कैसे और कहां रहे .
    संयुक्त परिवार हो तो भी निर्णय लेने का अधिकार घर के बड़ो के हाथ में नहीं हर दपत्ति का अपना होना चाहिये
    और सबसे जरुरी बात हैं की हम सब को अपने बुढापे के बारे में सोचना चाहिये और अपनी संतान को उसके अधिकार सौप कर उसकी जिंदगी में दखल बंद कर देनी चाहिये

    अशक्त माता पिता को सहारा देना बच्चे तब सीखेगे जब आप उनको "निर्णय " लेने देगे . बच्चे सम्पत्ति नहीं होते हैं बच्चे को कर्तव्य और अधिकार उनको बताने पड़ते हैं सीखने पड़ते हैं लेकिन १८ वर्ष की उम्र तक ही क्युकी उसके बाद वो "बालिग " हैं अपने निर्णय लेने के लिये .
    ये कहना की नयी पीढ़ी लापरवाह गलत हैं क्युकी उसको ये थाती हमने दी हैं
    मै ओल्ड एज होम केवल उनलोगों के लिये सही मानती हूँ जिनकी अपनी कोई आय और सम्पत्ति नहीं हैं
    मेरी इस पोस्ट से सहमति हैं लेकिन निदान से नहीं , निदान के लिये हमको अपने पारिवारिक ढांचों में बदलाव लाना होगा , हम को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा . बच्चो पर अधिकार छोड़ना होगा .
    इसके अलावा जिन लोगो के पास पैसा हैं और उनको बुढ़ापे में किसी के साथ की जरुरत हैं और उनके बच्चो के पास समय नहीं हैं तो उनको अपने लिये ऐसे लोग खोजने होगे जो पैसा लेकर उनके साथ २४ घंटे रहे .
    हम को ये सोच बदलनी होगी की क्युकी बच्चे हमारी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हैं तो हम उनकी "ज़िम्मेदारी " हैं .

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  8. परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं।
    आज विश्व बड़ी तेजी से बदल रहा है। पारिवारिक संसाधन को अक्षुण्ण रखने हेतु इस बदलते विश्व में परिवार की ज़िम्मेदारियां भी काफी बढ़ गई हैं। परिवार से जुड़े मुद्दों के प्रति हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।
    औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण व वैश्वीकरण के कारण हमारी सामाजिक मान्यताएं बदलती जा रहीं हैं। हमारे देश की पारिवारिक पद्धति भी इससे अछूता नहीं है।
    संयुक्त परिवार में जहां सामुदायिक भावना होती है वहीं छोटे परिवार में व्यक्तिगत भावना प्रधान होती है। जहां व्यक्तिगत भावना हावी होगी वहां स्वार्थ का आ जाना स्वाभाविक है। सब अपना-अपना सोचने लगते हैं।
    आज तो जीवन बिल्कुल यांत्रिक हो गया है। रिश्ते भी औपचारिकता तक सीमित हो गये हैं जिसमें आपसी स्नेह, माधुर्य, सौहार्द्र और परस्पर विश्वास की कमी आ गई है। आज यह बहुत ज़रूरी है कि हमारे सम्बन्धों में मज़बूती हो, एकजुटता हो, दृढ़ता हो। विश्वास की दृढ़ता।

    पालि में लिखे जातक कथा महावेस्सन्तर जातक में कहा गया है,
    येन केनचि वण्णेन पितु दुक्खं उदब्बहे,
    मातु भागिणिया चापि अपि पाणेहि अत्तनि।
    अर्थात्‌ मां, बहन और पिता का दुःख जैसे भी हो दूर करना चाहिए!
    *** ओल्ड एज होम भेज कर नहीं। (मेरा मानना है।)

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  9. अच्छा आलेख पर यहाँ एक पहलु और भी है वो है सामंजस्य बैठाने का ...कई बार मैंने बुजुर्ग महिलाओ को ये हठ पाले देखा है "जो जैसा चलता आया है वैसे ही चलेगा " परिवर्तन या लचीलेपन के लिए तैयार नहीं होती ..जिस वजह से फिर बहुए उन कामो में हाँथ नहीं लगाना चाहती ...समय बदल गया है है ..बाहर से देखने से लगेगा बेचारी बुजुर्ग महिला सारे समय काम में लगी रहती है पर ...कई बार उनकी हठ के कारण घर की युवा महिला सदस्य उन कामो को छोड़ देती है . एक उम्र के बाद अशक्त होने पर वही छोटे छोटे काम भारी लगने लगते है

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  10. आपके आकलन से सहमत हूँ ,पर समाधान को लेकर थोड़े पसोपेश में हूँ.....

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  11. अच्छा विचार है।

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  12. वाणीगीत आपका संतुलित लेख और रचना की सधी हुई टिप्पणी बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है..

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  13. सर्वप्रथम इस विचारणीय पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार...ज्वलंत विषय उठाया है आपने...

    जानती हैं, प्राथमिक समस्या है धारणा की..पति पत्नी इनके बच्चे और साथ में माता पिता, इतने को व्यक्तिगत मान्यतानुसार मैं तो परिवार कहती हूँ..हाँ यदि पिछली पीढी से मेरे चचेरे सास ससुर से लेकर, हमारी पीढी से ननद देवर देवरनिया और अगली पीढी से इन सब के बच्चे एक साथ रह रहे हों और एक ही चौके में खा रहे हों, तब इसे मैं संयुक्त परिवार कहूँगी..पर विडंबना है कि पति पत्नी और बच्चे के साथ यदि एक माता पिता और जुड़ जाएँ तो लोग इसे संयुक्त परिवार कहने में संकोच नहीं कहते..अब जब मन से मान लिया कि बुजुर्ग माता पिता परिवार में एक्स्ट्रा एडिशन हैं,तो स्वाभाविक रूप से उन्हें बोझ तो समझा ही जायेगा.उन्हें उपेक्षित होना ही पड़ेगा..

    मुख्य रूप से दो समस्याएं हैं,जिन्हें यदि दूर कर दिया जाए तो स्थिति काफी सुधर सकती है-

    १) परिवार के सभी सदस्य अधिकार से अधिक कर्तब्य के प्रति जागरूक हों,जो कि छुटपन से संस्कारों में अभिभावकों द्वारा बोये और विकसित किये जाने चाहिए

    २) स्त्री जागरूकता बहुत आवश्यक है,परन्तु ध्यान में रखना होगा कि स्त्री व्यक्तित्व का समग्र विकास हो..उनमे सिर्फ यह न बोया जाय कि उनके जीवन का परम लक्ष्य धनार्जन है..घर के बहार निकल धन पद अर्जित कर ही वह अपना होना साबित कर सकती है..

    डे केयर का आप्शन वर्तमान परिपेक्ष्य में सही लग रहा है,पर यही अंतिम समाधान नहीं है..क्योंकि डे केयर निःशुल्क तो होता नहीं..सबके वश में नहीं कि वह यह खर्चा सहज ही उठा सके और दूसरी बात यह कि साठ सत्तर का वय पार कर चुकी पीढी जो अपने घर परिवार से मानसिक रूप से इतने अधिक जुड़े रहते हैं,आशा बनाये रखते हैं कि उनके बच्चे उनका बुढ़ापा सुधारेंगे, सहज ही नहीं मान पाएंगे डे केयर व्यवस्था को..दूसरी बात कि जो दंपत्ति डे केयर का खर्च उठा सकते हैं,वे घर पर ही आया आदि की व्यवस्था कर बुजुर्गों को रहत दे सकते हैं,बल्कि यह तो कम खर्चीला होगा..

    विवाह पूर्व लडकी लड़के की मेंटल कंडिशनिंग बहुत ही आवश्यक है,जो कि शायद ही की जाती है..न ही लड़के को यह सिखाया समझाया जाता है कि घरेलु कामों में वे कैसे हाथ बंटा सकते हैं और न ही विवाह पूर्व तक पढ़ाई लिखाई में लड़कों की ही तरह पूरी तरह से लगी लड़कियों को एकसाथ पढ़ाई कैरियर और घर का सञ्चालन कुशलता पूर्वक करने के गुर सिखाये जाते हैं..

    किसी भी परिवार में जबतक यह व्यवस्था न हो कि पुरुष स्त्री तथा बच्चों के बीच वयानुसार जिम्मेदारियां बंटी हुई हों, न कोई ओवरलोडेड हो और न कोई छुट्टा तबतक इस विषम स्थिति से बचा नहीं जा सकता..यूँ तो परिवार में यदि सारे सदस्य एक दुसरे के लिए प्रेम समर्पण और सद्भावना रखें तो खुद ही सबको समझ आ जाता है कि एक दुसरे के सुख सुविधा के लिए क्या करना चाहिए और घर में शांति और सौहाद्र कैसे बनाना चाहिए..

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  14. मैं रचना जी से सहमत हूँ.एक यह भी कारण है.

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  15. यदि घर में रहकर बेगानों सा रहना पड़े तो , ओल्ड एज होम एक अच्छा माध्यम है जहाँ अपने हमउम्र लोगो के साथ सुख दुःख बाँट कर मन हल्का कर सकते हैं , अपनी मर्जी और सुविधा से रह सकते हैं .
    सही है. लेकिन वाणी जी, बात यहां आकर खत्म नहीं होती. इस मुद्दे पर बहुत विमर्श की ज़रूरत है, क्योंकि हर बुज़ुर्ग महिला इतनी बेचारी नहीं है. कई जगह बहुएं ही बेचारी हैं, जिन्हें नौकरी के साक्षात्कार की तैयारी, घर, मेहमान और बच्चे देखते हुए करनी होती है.

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  16. वाणी जी आज की पीढी और मध्यम वर्ग की बढती मेह्त्वाकांक्षाओ को देखते हुये यह कटू सत्य हमारे सामने एक समस्या के रूप में मुह बाये खडा है.
    और इन सब के बीच हमारा बुजुर्ग वर्ग बिचारा कर्तव्व्यो और अपनो की बेरुखी में पिस्ता ही रह जाता है. और आजकल तो असुरक्षा का डर भी रहता है.
    मैने सुना है की विदेशो में जो ओल्ड एज होम खोले है उनमे बुजुर्ग बहुत खुश और सुरक्षित रहते हैं. उनकी बातो से प्रेरित होकर मुझे आपका ये सुझाव ही
    उचित लगता हैं. इसके लिए और अधिक जान्कारीया वहा रहने वालो से प्राप्त कर के यहा अपनायी जा सकती हैं.

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  17. बुजुर्ग महिलाओ की स्थिति का सही आंकलन. फिर भी सचाई ये है की पुरानी और नई पीढ़ी की महिलाओ को आपसी सामंजस्य बनाने एक-दूसरे की ओर करीब आना होगा. बहू जब बेटी और सास जब माँ की भूमिका में होगी तब स्थिति बेहतर इमोशनल बांडिंग की बन जाएगी.

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  18. एक अच्छा सामंजस्य बहुत जरूरी है...जिन घरों में बहू और बुजुर्गों के बीच आपसी समझ-बूझ होती है...कोई परेशानी नहीं होती...किन्तु जहाँ अहम् का टकराव...वर्चस्व साबित करने की चाह रहती है..वहाँ ये सारी समस्याएं सर उठाती हैं..चाहे बहू सारे दिन घर पर ही रहे.

    घर के काम वगैरह की बातें तो छोटी-मोटी हैं...बहू काम पर जाए तो एक खाना बनाने वाली रख सकती है...कुछ काम निबटा कर जा सकती है...अगर मन में एक दूसरे के लिए प्यार और आदर हो तो इस तरह की समस्याएं चुटकियों में सुलझ जाती हैं.

    ओल्ड एज होम की जब भी बात आती है..एक documentary नज़रों के सामने से घूम जाती है...जहाँ सारी सुविधाएं और अपने हमउम्रों का साथ होने के बावजूद वे बूढी आँखें....बच्चों के मिलने की बाट जोहती थीं...और हर एक में अपने घर लौटने की तमन्ना थी.

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  19. Aaj ka ye jwalant vishay hai.Mujhe bhee pahle Old age home gaalee saman lagta hai,lekin aaj,chahe majbooran sahee ise vikalp maan lena pad raha hai. Kabhi,kabhi lambi umr ek bad dua-si lagtee hai.

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  20. Good post.
    Suggestions are good too. The whole conflict rests on issue of division of labor within the household. If it is a nuclear family wife shares the most domestic burden and if it is a joint household the weakest person shoulders the greater burden.

    This so called modernity is killing many; "we are so modern and liberal that our DIL attends hobby classes or we are so modern that we let her do, XYZ..." Why can't it be we are all adults and we share are responsibilities according to our roles and needs.

    Wish Desis would grow up...

    Peace,
    Desi Girl

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  21. चर्चा चल पड़ी है। तो बहस और आगे जानी चाहिए। संस्कारों की बात की जा रही है। परिवार के लिए एक आदर्श व्यवस्था की खोज की भी जिस में सभी बिना किसी तकलीफ के एक दूसरे का सहयोग करते हुए रह सकें।
    मैं बहुत दिनों से अक्सर एक बात करता रहा हूँ। परिवार में जनतांत्रिक मूल्यों के विकास की। मेरी नजर में वही एक हल दिखाई पड़ता है भविष्य के लिए। अपनी बात मैं विस्तार से कहूंगा, कहने को समय मिले। अभी तो इस साल जल्दी आ गई बरसात ने दो दिनों से सब कुछ अस्तव्यस्त कर रखा है।

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